वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि विज्ञान का आधार ही पश्चिम की देन हो तथा भविष्य भी उनके वैज्ञानिकों के ऊपर टिका हो! परन्तु क्या हमने यह जानने का प्रयास किया है कि ऐसा क्यों है? या हमारी मनोदशा ऐसी क्यों है कि जब भी विज्ञान या अन्वेषण की बात आयी है तो हम बरबस ही पश्चिम का नाम ले लेते हैं।इसका सबसे बड़ा कारण जो हमें नजर आता है वह यह है कि, ‘अपने देश व संस्कृति के प्रति हमारी अज्ञानता व उदासीनता काभाव। या यूं कहें कि सैकड़ो वर्षों की पराधीनता नें हमारे शरीर के साथ-साथ हमारे मन को भी प्रभावित किया जिसका परिणाम यह हुआ कि हम शारीरिक रुप से तो स्वतंत्र हैं किन्तु अज्ञानतावश मानसिक रुप से आज भी परतंत्र हैं। थोड़ा विचार करने परयह पता चलता है कि हीनता की यह भावना यूँ ही नही उत्पन्न हुई ! बल्कि इसके पीछे एक समुचित प्रयास दृष्टिगत होता है, जोहमारे वर्तमान पाठयक्रम के रुप में उपस्थित है। प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी पाठयक्रमों में वर्णित विषय पूरीतरह से पश्चिम की देन लगते हैं, जो हमारी मानसिकता को बदलने का पूरा कार्य करते हैं। आजादी के बाद से आज तक इसी पाठ्क्रम को पढ़ते-पढ़ते इतनी पीढ़ीयाँ बीत चुकीं हैं कि अगर सामान्य तौर पर देश के वैभव की बात किसी भारतीय से की जायतो वह कहेगा कि कैसा वैभव? किसका वैभव? हम तो पश्चिम को आधार मानकर अपना विकास कर रहे हैं। हमारे पास क्या है? ऐसी बात नही कि यह मनोदशा केवल सामान्य भारतीय की हो बल्कि देश का तथाकथित विद्वान व बुध्दिजीवी वर्ग भी यहीसोचता है। इसका मूल कारण है कि आजादी के बाद भी अंग्रजों के द्वारा तैयार पाठ्क्रम का अनवरत् जारी रहना, अपने देश के गौरवमयी इतिहास को तिरस्कृत का पश्चिमी सोच को विकसित करना। और उससे भी बड़ा कारण रहा हमारी अपनी संस्कृति, वैभव, विज्ञान, अन्वेषण,व्यापार आदि के प्रति अज्ञानता।
भारतीय चिकित्सा विज्ञान को ’आयुर्वेद’ नाम से जाना जाता है। और यह केवल दवाओं और थिरैपी का ही नही अपितु सम्पूर्ण जीवन पद्धति का वर्णन करता है।
आयुर्वेद को श्रीलंका, थाइलैण्ड, मंगोलिया और तिब्बत में राष्ट्रीय चिकित्सा शास्त्र के रुप में मान्यता प्राप्त है। चरक संहिता व सुश्रुत संहिता का अरबी में अनुवाद वहाँ के लोगों नें 7वीं शताब्दी में ही कर डाला था।
यूरोपीय डॉ. राइल नें लिखा है- ’हिप्पोक्रेटीज (जो पश्चिमी चिकित्सा का जनक माना जाता है) नें अपनें प्रयोगों में सभी मूल तत्वों के लिए भारतीय चिकित्सा का अनुसरण किया।’ डॉ. ए. एल. वॉशम नें लिखा है कि ’अरस्तु भी भारतीय चिकित्सा का कायल था।’
सर्वप्रथम परमाणु वैज्ञानी कहीं और नहीबल्कि इस भारतभूमि में पैदा हुए, जिनमें प्रमुख हैं:- महर्षि कणाद, ऋषि गौतम, भृगु, अत्रि, गर्ग, वशिष्ट, अगत्स्य, भारद्वाज, शौनक, शुक्र, नारद,कष्यप, नंदीष, घुंडीनाथ, परशुराम, दीर्घतमस, द्रोण आदि ऐसे प्रमुख नाम हैं जिन्होनें विमान विद्या (विमानविद्या), नक्षत्र विज्ञान (खगोलशास्त्र), रसायन विज्ञान (कमेस्ट्री), जहाज निर्माण (जलयान),अस्त्र-शस्त्र विज्ञान, परमाणु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, लिपि शास्त्र इत्यादि क्षेत्रों में अनुसंधान किये और जो प्रमाण प्रस्तुत किये वह वर्तमान विज्ञानसे उच्चकोटि के थे। जो मानव समाज के उत्थान के मार्ग को प्रशस्त करनें वाले हैं न कि आज के विज्ञान की तरह, जो निरन्तरही मानव सभ्यता के पतन का बीज बो रहा है।
अगस्त ऋषि की संहिता के आधार पर कुछ विद्वानों नें उनके द्वारा लिखेगये सूत्रों की विवेचना प्रारम्भ की। उनके सूत्र में वर्णित सामग्री को इकट्ठा करके प्रयोग के माध्यम से देखा गया तो यह वर्णनइलेक्ट्रिक सेल का निकला। यही नही इसके आगे के सूत्र में लिखा है कि सौ कुंभो की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेगें तो पानीअपने रुप को बदलकर प्राणवायु (ऑक्सीजन) तथा उदानवायु (हाईड्रोजन) में परिवर्तित हो जायेगा। उदानवायु को वायु-प्रतिबन्धक यन्त्र से रोका जाय तो वह विमान विद्या में काम आता है। प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक राव साहब वझे जिन्होनेभारतीय वैज्ञानिक ग्रन्थों और प्रयोगों को ढूढ़नें में जीवन लगाया उन्होने अगत्स्य संहिता एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर विद्युतके भिन्न-भिन्न प्रकारों का वर्णन किया। अगत्स्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरणमिलता है।
‘धातु विज्ञान’ यह ऐसा विज्ञान है जो प्राचीन भारत में ही इतना विकसित था कि आज भी उसकी उपादेयता उतनी ही है। रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रन्थों में सोना, लोहा, टिन, चाँदी, सीसा,ताँबा, काँसा आदि का उल्लेख आता है। इतना ही नही चरक, सुश्रुत..., नागार्जुन नें स्वर्ण, रजत,ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियाँ बनाने का आविष्कार किया। यूरोप के लोग1735 तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रुप में अलग से प्राप्त नही किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियम चैंपियन नें ब्रिस्टल विधि से जस्ता प्राप्त करनें के सूत्र का पेटेन्ट करवाया। और उसने यह नकल भारत से की क्योंकि 13वीं सदीके ग्रन्थ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, ब्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है। 18वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकल फैराडे ने भी प्रयत्न किया पर वह भी असफलरहा। कुछ नें बनाया लेकिन उसमें गुणवत्ता नही थी। सितम्बर 1795 को डॉ. बेंजामिन हायन नें जो रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनीको भेजी उसमें वह उल्लेख करता है कि ’रामनाथ पेठ एक सुन्दर गांव बसा है यहाँ आस-पास खदानें है तथा 40 भट्ठियाँ हैं। इन भट्ठियों में इस्पात निर्माण के बाद कीमत 2रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।’ नई दिल्ली में विष्णुस्तम्भ (कुतुबमीनार) के पास स्थित लौह स्तम्भ विष्व धातु विज्ञानियों के लिए आश्चर्य का विषय रहा है, ”क्योंकि लगभग1600 से अधिक वर्षों से खुले आसमान के नीचे खड़ा है फिर भी उसमें आज तक जंग नही लगा।
जब हम ’यंत्र विज्ञान’ अर्थात् मैकिनिक्स पढ़ते हैं तो सर्वप्रथम न्यूटन के तीनो नियमों को पढ़ाया जाता है। यदि हम महर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द को देखें तो Motion निकलता है। उन्होने इसके पाँच प्रकार बताये हैं – उत्क्षेपण (Upword Mot...ion), अवक्षेपण (Downword Motion),आकुंचन (Motion due to tensile stress), प्रसारण (Sharing Motion) वगमन (Genaral type of Motion)। डॉ. एन. डी. डोगरे अपनी पुस्तक ‘The Physics’ में महर्षि कणाद व न्यूटन के नियम की तुलना करते हुए कहते हैं कि कणाद के सूत्र को तीन भागों में बाँटे तो न्यूटन के गति सम्बन्धी नियम से समानता होती है।
विज्ञान की अन्य विधाओं में वायुयान – जलयान भी विश्व को तीव्रगामी बनानें में सहायक रहे हैं। वायुयान का विस्तृतवर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भरा पड़ा है उदाहरणत: विद्या वाचस्पति पं0 मधुसूदन सरस्वती के ’इन्द्रविजय’ नामक ग्रन्थ में ऋग्वेद के... सूत्रों का वर्णन है। जिसमें वायुयान सम्बन्धी सभी जानकारियाँ मिलती हैं। रामायण में पुष्पक विमान, महाभारत में, भागवत में,महर्षि भारद्वाज के ’यंत्र सर्वस्व’ में। इन सभी शास्त्रों में विमान के सन्दर्भ में इतनी उच्च तकनिकी का वर्णन है कियदि इसको हल कर लिया जाय तो हमारे ग्रन्थों में वर्णित ये सभी प्रमाण वर्तमान में सिध्द हो जायेगें। आपको यह जानकरआश्चर्य होगा कि विश्व की सबसे बड़ी अन्तरिक्ष शोध संस्था ’नासा’ नें भी वहीं कार्यरत एक भारतीय के माध्यम से भारत से महर्षि भारद्वाज के ’विमानशास्त्र’ को शोध के लिए मँगाया था। इसी प्रकार पानी के जहाजों का इतिहास व वर्तमान भारत की ही देन है।यह सर्वत्र प्रचार है कि वास्कोडिगामा नें भारत आने का सामुद्रिक मार्ग खोजा, किन्तु स्वयं वास्कोडिगामा अपनी डायरी में लिखता है कि, ”जब मेरा जहाज अफ्रीका के जंजीबार के निकट आया तो अपने से तीन गुना बड़ा जहाज मैनें वहाँ देखा। तब एकअफ्रीकन दूभाषिये को लेकर जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक ’स्कन्द’ नाम का गुजराती व्यापारी था जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवन की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहाँ गया था। वास्कोडिगामा नें उससे भारत जाने की इच्छा जाहिर की तो भारतीय व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हँ, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।” इस प्रकार व्यापारी का पीछा करते हुए वह भारत आया। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का एक सामान्य व्यापारी वास्कोडिगामा से अधिक जानकार था।
गणित शास्त्र की तरफ ध्यान आकृष्ट होता है। इस क्षेत्र में भारत की देन हैकि विश्व आज आर्थिक दृष्टि से इतना विस्तृत हो सका है। भारत इस शास्त्र का जन्मदाता रहा है। शून्य और दशमलव की खोजहो या अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित की, पूरा विष्व इस क्षेत...्र में भारत का अनुयायी रहा है। इसके विस्तार में न जाकर एक प्रमाण द्वारा इसकी महत्ता को समझ सकते हैं। यूरोप की सबसे पुरानी गणित की पुस्तक ’कोडेक्स विजिलेंस‘ है जो स्पेन कीराजधानी मेड्रिड के संग्रहालय में रखी है। इसमें लिखा है ”गणना के चिन्हो से हमे यह अनुभव होता है कि प्राचीन हिन्दूओं कीबुध्दि बड़ी पैनी थी, अन्य देश गणना व ज्यामितीय तथा अन्य विज्ञानों मे उनसे बहुत पीछे थे। यह उनके नौ अंको से प्रमाणितहो जाता है। जिसकी सहायता से कोई भी संख्या लिखी जा सकती है।” भारत में गणित परम्परा कि जो वाहक रहे उनमें प्रमुख हैं, आपस्तम्ब, बौधायन, कात्यायन, तथा बाद में ब्रह्मगुप्त, भाष्काराचार्य,आर्यभट्ट, श्रीधर, रामानुजाचार्य आदि। गणित के तीनोंक्षेत्र जिसके बिना विश्व कि किसी आविष्कार को सम्भव नही माना जा सकता, भारत की ही अनुपन देन है।
1. त्रैराशिक का आविष्कार भारतीय गणितज्ञों ने किया ।
2. त्रिकोणमिति के क्षेत्र में भारतीय मनीषियों ने जो काम किया है, वह बेजोड़ और मौलिक है । उन्होंने ज्या, कोटिज्या, और उत्क्रमज्या आविष्कृत की ।
3. आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर, पद्मना...भ और भास्कराचार्य बीजगणित के ऐसे-ऐसे प्रश्न हल करते थे, जैसे १७वीं और १८वीं शताब्दी के पहले तक यूरोप के गणितज्ञ नहीं कर पाते थे ।
4. भास्कराचार्य की ‘लीलावती’ में यह प्रमाणित किया गया है कि जब किसी अंक को शून्य से भाग दिया जाता है, तब उसका फल अनंत अंक आता है ।
5. पाइथागोरस को इस सिद्धान्त का आविष्कर्त्ता माना जाता है कि समकोण त्रिभुज की समकोणवाली भुजा पर स्थित वर्ग का क्षेत्र अन्य दो भुजाओं पर स्थित वर्गों के क्षेत्रों के योग के बराबर होता है । परंतु बोधायन ने पाइथागोरस से बहुत पहले ही अर्थात् आज से २८०० वर्ष पूर्व ही यह सिद्धान्त स्थापित किया था ।
6. गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कारक न्यूटन को माना जाता है । किन्तु इससे बहुत पहले ही भास्कराचार्य के ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में यह लिखा जा चुका था कि भारी पदार्थ ( अपने भार से ) पृथ्वी पर गिरते मालूम होते हैं, पर यह पृथ्वी का आकर्षण है जो उन्हें नीचे खींच लाता है ।
7. भारतीयों को पदार्थ विज्ञान ( प्रकाश, उष्णता, ध्वनि, आकर्षण-धर्म और विद्युत आदि ) भली-भाँति ज्ञात था ।
8. रसायनशास्त्र संबंधी उनका कार्य वैद्यकशास्त्र में स्पष्ट रूप से वर्णित है ।
9. सूर्य किरणों को केन्द्रीभूत करने के लिए वे गोल और अंडाकार ‘लेंस’ तैयार करते थे ।